‘मां’ फिल्म की समीक्षा: कुछ खास हो सकता था… लेकिन रह गया अधूरा

कभी-कभी फिल्मों से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं होती, लेकिन फिर भी दिल चाहता है कि कुछ अच्छा देखने को मिले। काजोल की नई हॉरर फिल्म ‘मां’ से भी कुछ ऐसा ही जुड़ाव था — ट्रेलर देखा, माहौल ठीक-ठाक लगा, काली मां के नाम पर कुछ नया दिखाने की उम्मीद बनी। लेकिन पूरी फिल्म देखने के बाद एक ही बात मन में आई — “हिम्मत की तारीफ़ करनी चाहिए, लेकिन सफ़र अधूरा रह गया।”

कहानी की शुरुआत से दिलचस्पी बनती है… फिर धीरे-धीरे फिसलती है

फिल्म की शुरुआत चंद्रपुर (पश्चिम बंगाल) से होती है, जहां किसी प्राचीन ‘दैत्य’ की कहानी सुनाई जाती है। यह हिस्सा थोड़ा रहस्यमय और दिलचस्प है। इसके बाद कहानी मौजूदा समय में पहुंचती है — जहां काजोल अपने पति (इंद्रनील सेनगुप्ता) और बेटी श्वेता (खेरीन शर्मा) के साथ नज़र आती हैं।

शुरुआती कुछ मिनटों में माहौल ठीक बनता है — रहस्य भी है, डर भी थोड़ा-बहुत है। लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे वो गहराई गायब होने लगती है जिसकी तलाश हम सिनेमा हॉल में करते हैं।

काजोल — एक सशक्त कलाकार, लेकिन किरदार ने साथ नहीं दिया

काजोल ने ईमानदारी से कोशिश की है, इसमें दो राय नहीं। एक मां के रूप में उनका किरदार संवेदनशील होना चाहिए था — और कहीं-कहीं वो नजर भी आता है। लेकिन कई सीन ऐसे हैं जहां दर्शक उनसे जुड़ नहीं पाता। वो इमोशनल पलों की डिमांड तो करती हैं, लेकिन स्क्रीन पर वो असर नहीं बन पाता।

रोनित रॉय चमके, इंद्रनील सधा हुआ, खेरीन ठीक-ठाक

रोनित रॉय इस फिल्म में भी भरोसेमंद साबित होते हैं। उनका किरदार थोड़ा रहस्यमयी है, और वो उस अंदाज़ को अच्छे से निभा ले जाते हैं। इंद्रनील सेनगुप्ता की स्क्रीन टाइम थोड़ी कम है, लेकिन जहाँ भी आते हैं, सधे हुए नज़र आते हैं।

बात करें खेरीन शर्मा की, तो उन्होंने नई कलाकार के तौर पर मेहनत की है। कुछ सीन में वो सशक्त लगती हैं, बाकी में औसत। लेकिन उन्हें देखकर लगता है कि आगे जाकर बेहतर कर सकती हैं।

तकनीकी तौर पर फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी — गहराई की कमी

हॉरर फिल्में सिर्फ डराने के लिए नहीं होतीं — वो भावनाओं, कहानी और माहौल का मेल होती हैं। ‘मां’ में ये सब अधूरा लगता है।
लाइटिंग से लेकर बैकग्राउंड स्कोर तक — सब कुछ ऐसा लगता है जैसे पुराने फॉर्मूले पर चल रहा हो। नयापन नहीं दिखता।

और सबसे बड़ी बात — कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, पहले से पता चलने लगता है कि अब क्या होगा। कोई सीन चौंकाता नहीं है, उल्टा बहुत कुछ दोहराव जैसा लगता है।

हमारी राय — एक बेहतर स्क्रिप्ट के साथ ये फिल्म कुछ बड़ा कर सकती थी

‘मां’ को देखकर यही लगता है कि इस फिल्म में बहुत कुछ किया जा सकता था। पौराणिकता, मातृत्व, डर और भावनाएं — इन सबको मिलाकर एक बहुत ही दमदार कहानी रची जा सकती थी।

लेकिन अफसोस कि स्क्रिप्ट और निर्देशन उस लेवल तक नहीं पहुंच पाए। फिल्म देखने के बाद अगर कुछ याद रह जाता है, तो बस कुछेक सीन और रोनित रॉय का परफॉर्मेंस।

अगर देखने जाएं, तो आखिरी तक रुकिए…

हां, अगर आप इस फिल्म को थिएटर में देखने जाते हैं, तो एंड क्रेडिट तक ज़रूर बैठिए। क्योंकि वहां कुछ ऐसा इशारा मिलता है, जिससे लगता है कि शायद इस यूनिवर्स की आगे और कहानियां आएंगी।

अंतिम बात: ‘मां’ एक साहसिक कोशिश थी, जो ज़रूरत से पहले थम गई

इस फिल्म में एक मां की ताकत को दिखाने की कोशिश थी, उसमें डर और रहस्य जोड़कर कुछ नया पेश करने का इरादा था। लेकिन इरादा और अंजाम के बीच जो दूरी है — वही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी बन गई।

अगर आप हॉरर और पौराणिक एलिमेंट्स के फैन हैं, तो एक बार देख सकते हैं। बस ज्यादा उम्मीदें न लेकर जाइए।

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